उत्तराखंड में पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत का सोशल मीडिया पर छलका दर्द, राजनीतिक जीवन को लेकर लिखा कुछ ऐसा…

देहरादून: आर्थिक, सांस्कृतिक व सामाजिक रूप से उत्तराखंड की क्षमता के संदर्भ में अपने मस्तिष्क में एक परिपक्व सोच पर आने के बाद ही मैं राज्य निर्माण के पक्ष में आया और पार्टी को भी लाने में लग गया। वर्ष 2000 से लगातार इस संदर्भ में मंथन किया। अवसर मिलने पर मैंने इस मंथन को 2014 से धरती पर उकेरना प्रारंभ किया। एक स्पष्ट कार्यक्रम आधारित सोच का परिणाम था कि जब हमने भराड़ीसैंण में विधानसभा भवन व सचिवालय पर कार्य प्रारंभ किया और विधानसभा सत्र वहां आयोजित किए तो एक सर्वपक्षीय स्वीकारोक्ति उभर कर सामने आई। पहाड़ मैदान की बातें, आर्थिक व संस्कृतिक आधार पर विकसित सामाजिक सोच के आगे मिट गई।

सभी सामाजिक क्षेत्रीय समूहों को गैरसैंण में अपना भविष्य दिखाई देने लगा। चुनाव के पहले कांग्रेस पार्टी से बड़ा दल-बदल भी भाजपा को सत्ता में नहीं ला सकता था, यदि भाजपा के सांस्कृतिक राष्ट्रवाद+मोदी जी के व्यक्तित्व को पुलवामा एवं बालाकोट से उत्पन्न प्रचंड आंधी और उत्तर प्रदेश में समाज को हिंदू व मुसलमान के रूप में बटने का लाभ नहीं मिला होता।

यह प्रचंड अंधड़ भी कांग्रेस को वर्ष 2012 के चुनाव में प्राप्त वोटो को नहीं घटा पाया। परन्तु निर्दलीयों व दूसरे दलों को प्राप्त वोट भाजपा में जुड़ गये और भाजपा बहुत बड़े बहुमत से सत्ता में आ गई। चुनाव में कांग्रेस पार्टी के वोटों का यथावत बने रहना एक बड़ा संदेश था। मैंने बड़ी हार के बावजूद इस संदेश को सहारा बनाया।

मोदी+ संघ+भाजपा के सांस्कृतिक राष्ट्रवाद से चुनावी मुकाबले के लिए स्थानीय संस्कृति, परिवेश, पहचानों व विभिन्नताओं को राज्य की आर्थिकी का आधार बनाकर एक भावनात्मक आकार दिया “उत्तराखंडियत”। चुनाव में हार के बाद भी मैंने बड़ी श्रम साध्यता से इसे एक चुनावी हथियार के रूप में खड़ा किया। ताकि हम मोदी+ सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का मुकाबला कर सकें। भाजपा के रणनीतिकारों ने इस रणनीति को समझा। प्रधानमंत्री जी ने मन की बात में मडुवा, बेड़ू, उत्तराखंडी टोपी आदि प्रतीकों के माध्यम से “हम भी हैं” का भाव पैदा किया।

कोई भी अस्त्र या कवच आधे अधूरे प्रयासों से निर्णायक असर पैदा नहीं करता है। मैं पार्टी को इस अस्त्र के साथ खड़ा नहीं कर पाया। यह मेरी विफलता थी। उत्तराखंडियत को लेकर पार्टी से एकजुटता के बजाए अन्यथा संदेश गया। अंततः जीतते-जीतते कांग्रेस हार गई। उत्तराखंड कांग्रेस अभी नहीं लगता अपने को बदलेगी! व्यक्ति को अपने को बदलना चाहिए। मैं इस निष्कर्ष पूर्ण सोच को आगे बढ़ाने के लिए आशीर्वाद मांगने भगवान बद्रीनाथ के पास गया था। भगवान के दरबार में मेरे मन ने मुझसे स्पष्ट कहा है कि हरीश आप उत्तराखंड के प्रति अपना कर्तव्य पूरा कर चुके हो।

उत्तराखंडियत के एजेंडे को अपनाने व न अपनाने के प्रश्न को उत्तराखंड वासियों व कांग्रेस पार्टी पर छोड़ो! सक्रियता बहुधा ईर्ष्या व अनावश्यक प्रतिद्वंदिता पैदा करती है। मेरा मन कह रहा है कि जिनके हाथों में बागडोर है उन्हें रास्ता बनाने दो। “भारत जोड़ो यात्रा” की समाप्ति के 1 माह बाद स्थानीय और राष्ट्रीय परिस्थितियों का विहंगम विवेचन कर मैं कर्म क्षेत्र व कार्यप्रणाली का निर्धारण करूंगा। थोड़ा विश्राम अच्छा है।

फिर भारत जोड़ो यात्रा का इतना महानतम् कार्यक्रम है। हरिद्वार के प्रति मेरा कृतज्ञ मन अपने सामाजिक, सांस्कृतिक व वैयक्तिक संबंधों व निष्ठा को बनाए रखने की अनुमति देता है। मैं अपने घर गांव व कांग्रेसजनों को हमेशा उपलब्ध रहूंगा। पार्टी की सेवा हेतु मैं दिल्ली में एक छोटे से उत्तराखंडी बाहुल्य क्षेत्र में भी अपनी सेवाएं दूंगा। पार्टी जब पुकारेगी मैं, उत्तराखंड में भी सेवाएं देने के लिए उत्सुक बना रहूंगा।

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