कृषि कानून वो पहला नही दूसरा कानून है जिसपर मोदी सरकार बैकफुट पर आई…..

दिल्ली : 7 साल की मोदी सरकार और इन सात सालों में यह सरकार दूसरी बार बैकफुट पर। इस बार नरेंद्र मोदी सरकार के कृषि कानूनों पर किसानों का आंदोलन भारी पड़ा है। केंद्र सरकार के तीन कृषि कानूनों के खिलाफ करीब एक साल तक चले किसान आंदोलन के बाद आखिरकार सरकार को किसानों की मांग के आगे झुकना ही पड़ा है।

सरकार ने काफी कोशिशें की थी कि किसानों को इस मुद्दे पर किसी भी तरह मनाया जाए। लेकिन किसान तीन कृषि कानूनों को रद्द करने से कम पर राजी नहीं थे।

जिसके बाद अब धरने पर बैठे किसानों से धरना खत्म करने की बात कहने के लिए खुद पीएम मोदी सामने आए। प्रधानमंत्री ने शुक्रवार को गुरु नानक जयंती के अवसर पर राष्ट्र के नाम संबोधन में कहा, ‘हमारी सरकार, किसानों के कल्याण के लिए, खासकर छोटे किसानों के कल्याण के लिए, देश के कृषि जगत के हित में, देश के हित में, गांव गरीब के उज्ज्वल भविष्य के लिए, पूरी सत्य निष्ठा से, किसानों के प्रति समर्पण भाव से, नेक नीयत से ये कानून लेकर आई थी।’

उन्होंने कहा, ”लेकिन इतनी पवित्र बात, पूर्ण रूप से शुद्ध, किसानों के हित की बात, हम अपने प्रयासों के बावजूद कुछ किसानों को समझा नहीं पाए।” उन्होंने कहा कि कृषि अर्थशास्त्रियों ने, वैज्ञानिकों ने, प्रगतिशील किसानों ने भी उन्हें कृषि कानूनों के महत्व को समझाने का भरपूर प्रयास किया। आज मैं आपको, पूरे देश को, ये बताने आया हूं कि हमने तीनों कृषि कानूनों को वापस लेने का निर्णय लिया है।

पीएम के इस ऐलान के बाद अलग-अलग राजनीतिक दलों की तरफ से प्रतिक्रियाएं भी सामने आईं। लेकिन यह पहला मौका नहीं है जब 7 साल की नरेंद्र मोदी सरकार को बैकपुट पर आना पड़ा है। इससे पहले भी सरकार भूमि अधिग्रहण अध्यादेश को लेकर अपने पैर पीछे खींच चुकी है। क्या था वो अध्यादेश और क्यों मोदी सरकार को अपने ही उस फैसले से पीछे हटना पड़ा था यह जानने के लिए हमें फ्लैशबैक में जाना होगा।

भूमि अधिग्रहण अध्यादेश पर मचा था बवाल
बात साल 2014 की है। यह वो वर्ष था जब नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में यह सरकार सत्ता की कुर्सी पर विराजमान हुई थी। सत्ता में आने के कुछ ही दिनों बाद केंद्र सरकार ने नया भूमि अधिग्रहण अध्यादेश लाया। लेकिन इस अध्यादेश के सामने आते ही इसपर उस वक्त बवाल मच गया था। तब की करीब-करीब सभी विपक्षी पार्टियों ने केंद्र सरकार के इस अध्यादेश का विरोध शुरू कर दिया। हालत यह हो गई थी कि उस वक्त मोदी सरकार ने इसे लेकर चार बार अध्यादेश जारी किए लेकिन वो इससे संबंधित बिल संसद में पास नहीं करा पाई।

मोदी सरकार बैकफुट पर आई
अंत में थक-हारकर केंद्र सरकार को अपने कमद वापस खींचने पड़े थे। 31 अगस्त 2015 को इस कानून को वापस लेने का ऐलान कर दिया था। दरअसल भूमि अधिग्रहण को लेकर यूपीए सरकार के कार्यकाल में एक कानून आया था। इस कानून में बदलाव करते हुए मोदी सरकार 2014 में नया कानून लेकर आई थी। नये कानून में बहुफसली भूमि (सेक्शन 10A) के अधीन पांच उद्देश्यों राष्ट्रीय सुरक्षा, रक्षा, ग्रामीण आधारभूत संरचना, औद्योगिक कॉरिडोर और पीपीपी समेत सार्वजनिक आधारभूत संरचनाओं के लिए बिना सहमति के भूमि अधिग्रहण करने का प्रस्ताव था।

पहले के कानून में पहले जो संशोधन हुआ था, उसके तहत सरकार और निजी कंपनियों के साझा प्रोजेक्ट में 80 प्रतिशत जमीन मालिकों की सहमति चाहिए होती थी। परियोजना सरकारी हो तो ये सहमति घटकर 70% रह जाती थी। लेकिन नए कानून में ये बाध्यता नहीं रही। सरकार के लिए भूमि का अधिग्रहण आसान हो सकता था। लेकिन अध्यादेश के इन प्रावधानों को लेकर उस भी हंगामा मच गया था। इन प्रावधानों का तीखा विरोध हुआ जिसका असर यह हुआ कि मोदी सरकार को उस वक्त कदम पीछे खींचने पड़े थे।

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