श्रीराम ने किया श्राद्ध, श्रीकृष्ण और पांडवों ने भी किए तर्पण… गयाजी के अलावा एक और पवित्र तीर्थ जो पितरों के लिए मुक्ति क्षेत्र है…..

हरिद्वार: पुष्कर तीर्थ में सरस्वती नदी के तट पर मृत्यु होने पर पुनर्जनम नहीं होता. यहां तिल और जल के साथ सुवर्ण (स्वर्ण) दान मेरु पर्वत दान के समान है. पितरों के लिए पिंडदान से उन्हें पूर्ण तृप्ति मिलती है।

श्राद्ध पक्ष में पितरों के तर्पण और पिंडदान का विशेष महत्व है. जितना इस कर्म विधान का महत्व है, उससे भी अधिक महत्व है उन तीर्थों का जहां ये कर्म विधान किए जाते हैं. भारत में पितृ कर्म के लिए सबसे पहला नाम गयाजी का आता है, जहां देशभर के कोने-कोने से आकर लोग श्राद्ध कर्म व पिंडदान करते हैं, माना जाता है कि गयाजी में एक बार अगर किसी पितर के लिए पिंडदान और श्राद्ध कर दिया गया तो फिर उस पितृ के निमित्त कभी और तर्पण नहीं करना पड़ता है।

वायु पुराण में वर्णन
गयाजी का यह महत्व पुराणों में खासकर शैव मत के वायु पुराण में बहुत विस्तार से वर्णन है, लेकिन गयाजी के ही समान एक और ऐसा तीर्थ है जहां जीवन में एक बार जरूर यात्रा करने और अपने पितरों के निमित्त श्राद्ध और पूजन कराने का विधान है।

यह स्थान तीर्थ क्षेत्र, ब्रह्म क्षेत्र पुष्कर धाम कहलाता है. पुष्कर अकेला ऐसा तीर्थ है जहां श्रीराम और श्रीकृष्ण दोनों ने ही अपने पितरों की तृप्ति और उनकी शांति के लिए विधान किए थे. पांडवों ने भी महाभारत युद्ध के बाद अपने पितरों और युद्ध में मारे गए दोनों पक्षों के सैनिकों के निमित्त अनुष्ठान कराए थे. इसके अलावा पुष्कर तीर्थ का वर्णन पद्म पुराण में बहुत विस्तार से बताया गया है. जहां इसका वर्णन इस तरह है कि भगवान विष्णु की नाभि से जो पद्म (कमल) उत्पन्न हुआ और जिससे ब्रह्माजी का प्रकट हुए वही पद्म पुष्प इस पुण्य भूमि पर गिरने से पुष्कर तीर्थ का निर्माण हुआ है।

ब्रह्माजी ने किया था महायज्ञ
पुष्कर तीर्थ में आदिकाल में ब्रह्मा जी ने एक महायज्ञ का आयोजन किया था. इस तीर्थ को कमल के शीर्ष का प्रतीक माना जाता है, जो चंद्रा और सरस्वती नदियों के निकट स्थित है. प्राचीन काल से ही पुष्कर के निवासी ब्रह्मा भक्त रहे हैं, जो मनसा, वाचिक और कायिक भक्ति के साथ-साथ लौकिक, वैदिक और आध्यात्मिक पद्धतियों का पालन करते हैं।

मनसा भक्ति, जिसमें बुद्धि को ध्यान और धारणा के माध्यम से नियंत्रित किया जाता है, ब्रह्मा जी को अत्यंत प्रिय है. वाचिक भक्ति में मंत्र जाप और वेद पाठ शामिल हैं, जो ब्रह्मा जी को समर्पित किए जाते हैं. इसी तरह कायिका भक्ति में व्रत, उपवास, नियमों का पालन और यज्ञ जैसे कठिन तप शामिल हैं।

पुष्कर में होती है ब्रह्मदेव की पूजा
लौकिक भक्ति में ब्रह्मा जी की पूजा दूध, दीप, धूप, कुश, जल, चंदन, आभूषण, नृत्य, वाद्य, संगीत और भक्ष्य-भोज्य नैवेद्य के साथ की जाती है. वैदिक भक्ति में वेदों का पाठ, मनन और श्रवण, साथ ही अग्नि से संबंधित कार्य शामिल हैं। आध्यात्मिक भक्ति में सांख्य शास्त्र और योग के माध्यम से तत्व ज्ञान और यम, नियम, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा और समाधि जैसे अभ्यास शामिल हैं। ये सभी भक्ति के रूप, यदि सच्ची निष्ठा और समर्पण के साथ किए जाएं, तो ब्रह्मा जी को प्रिय हैं. पुष्कर ही ऐसा एक तीर्थ है जहां ब्रह्मदेव की पूजा की जाती है।

जब ब्रह्मा जी ने पुष्कर तीर्थ पर महायज्ञ शुरू किया, तो सप्तऋषि, बारह आदित्य, ग्यारह रुद्र, दो अश्विनी कुमार, आठ वसु, सैंतालीस मरुद्गण, वासुकी, तार्क्ष्य, गरुड़ जैसे महानाग और दैत्य, दानव, राक्षस सभी उपस्थित थे. भगवान विष्णु और महादेव भी समय पर पधारे. दानवों ने त्रिमूर्तियों को आश्वासन दिया कि यज्ञ के दौरान देवताओं के साथ कोई विवाद नहीं होगा, जिससे ब्रह्मा जी प्रसन्न हुए।

पुष्कर में श्राद्ध और तर्पण का महत्व
पुष्करिणी तीर्थ के पवित्र जल में अपनी छवि देखने वाला हर व्यक्ति सुंदर प्रतीत होता था, जिसके कारण इसे ‘मुख दर्शन तीर्थ’ कहा गया. यज्ञ में स्नान और अग्नि कार्य करने वाले तपस्वियों ने इसे ‘श्रेष्ठ पुष्कर’ घोषित किया. ऋषि पुलस्त्य के अनुसार, पुष्कर तीर्थ तीन भागों में विभक्त है—ज्येष्ठ पुष्कर, मध्यमा पुष्कर और कनिष्ठ पुष्कर. यह तीर्थ दो और आधे योजन लंबा और आधा योजन चौड़ा है।

यहां एक बार प्रवेश करने से ही राजसूय और अश्वमेध यज्ञ का फल प्राप्त होता है. चैत्र शुक्ल चतुर्दशी को ब्रह्मा, देवता, महर्षि, सिद्ध और पितर इस तीर्थ पर अवतरित होते हैं. इस दिन तर्पण और पूजा, विशेष रूप से ज्येष्ठ पुष्कर में, अत्यंत फलदायी होती है. कहते हैं कि पितृ गंगा नदी के अलावा इस तीर्थ में भी स्नान करने उतरते हैं।

प्रातःकाल, मध्याह्न और सायंकाल में दस हजार करोड़ देवता, जैसे आदित्य, वसु, रुद्र, साध्य, मरुद्गण, गंधर्व और अप्सराएं, यहां निवास करते हैं. यहां भोजन दान करने से अनंत फल प्राप्त होता है. ब्रह्मा पुष्कर सरोवर में स्नान और आदि वराह मंदिर तथा ब्रह्मा मंदिर में पूजा, विशेष रूप से कार्तिक पूर्णिमा पर, अपार लाभ देती है।

पुष्कर तीर्थ में सरस्वती नदी के तट पर मृत्यु होने पर पुनर्जनम नहीं होता. यहां तिल और जल के साथ सुवर्ण (स्वर्ण) दान मेरु पर्वत दान के समान है. पितरों के लिए पिंडदान से उन्हें पूर्ण तृप्ति मिलती है. शाम को या रात्रि में स्नान और दान से स्थायी सुख प्राप्त होता है. यज्ञ के बाद सरस्वती नदी समुद्र की ओर चली गई, लेकिन नंदा नदी के रूप में पुनः प्रकट हुई।

आनंद रामायण में पुष्कर का जिक्र
आनंद रामायण में पुष्कर का जिक्र होता है, जिसमें बताया गया है कि श्रीराम और सीता, अपनी तीर्थयात्रा के दौरान पुष्कर आए थे. इस पावन क्षेत्र की महिमा देखकर श्रीराम ने अपने सभी पितरों का तर्पण और श्राद्ध यहां किया था।

श्रीकृष्ण ने भी बताई थी महिमा
इस विषय का जिक्र महाभारत के एक अंश और गरुण पुराण में दूसरी तरह से मिलता है, जहां श्रीकृष्ण खुद पुष्कर की महिमा बताते हुए कहते हैं कि इस स्थान पर तर्पण और श्राद्ध और श्राद्ध के लिए ही ब्राह्मणों को भोजन कराने से पितरों को शांति और तृप्ति मिलती है, साथ ही मनुष्य को कई यज्ञों के बराबर पुण्य मिलता है. गरुड़ ने एक प्रश्न पूछा था कि क्या वाकई ब्राह्मणों के रूप में पितृ भोजन ग्रहण करके तृप्त होते हैं ?

श्राद्ध के भोजन से कैसे तृप्त होते हैं पितृ ?
तब इसके जवाब में श्रीकृष्ण कहते हैं कि, एक बार जब श्रीराम और सीता श्राद्ध के निमित्त ब्राह्मणों को भोजन करा रहे थे, तब देवी सीता भी खुद अपने हाथों से उन्हें भोजन परोस रहे थीं. अचानक देवी सीता कुछ ब्राह्मणों को देखा और फिर दौड़कर लताओं की ओट में जा छिपीं. श्रीराम ने उनसे इसका कारण और रहस्य पूछा. देवी सीता ने कहा कि मुझे ब्राह्मणों के बीच राजसी वस्त्र पहने, क्षत्रियों के तेज से युक्त और शीलवान प्रतापी राजा दिखे. सभी को मैं ठीक-ठीक नहीं पहचान पाई, लेकिन इस बीच इंद्र की तरह शोभित आपके पिता महाराज दशरथ को मैंने पहचान लिया और देखकर लज्जा के कारण ही यहां छिप गई।

लज्जा इसलिए क्योंकि वह मुझे राजपरिवार की बेटी बनाकर लाए थे और अब जब वो मुझे वल्कल (गेरुआ, तपस्वी) वेश में देखेंगे तो उन्हें दुख होगा. उन्हें दुख हुआ तब तो आपका श्राद्ध कर्म भी अधूरा रह जाएगा. इसलिए मैं यहां लता ओट में छिपी हूं. श्रीराम ने सीता को निर्भय किया फिर दोनों ने पिता के चरण छुए और राजा दशरथ ने उन्हें बहुत से आशीर्वाद दिए. इस तरह पुष्कर तीर्थ का एक महत्व इसलिए भी है क्योंकि यहां देवी सीता और श्रीराम ने श्राद्ध विधान किया था।

इसी तरह द्वापर में श्रीकृष्ण ने कई बार पुष्कर यात्रा की थी और यहां विशेष साधना की थी. उन्होंने भी अपने पूर्वजों को यहां जल दिया था. जब यादव वंश पूरी तरह समाप्त हो गया था तब एक मात्र बचे यदुवंशी बज्रनाभ ने सभी के लिए तीर्थ फल प्राप्ति और तर्पण का विधान यहां किया था. पांडवों ने भी अपने परिवार के लिए यहां प्रार्थना की थी और तर्पण कर पितरों को तृप्त किया था।

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