आइये जानते है आज क्या पितर श्राद्ध ग्रहण करते हैं……..
हरिद्वार: पद्मपुराणमें आया है कि प्राचीन कालमें भगवान् श्रीराम जब भगवती सीता तथा लक्ष्मणके साथ चित्रकूटसे चलकर महर्षि अत्रिके आश्रमपर पहुँचे, तब उन्होंने मुनिश्रेष्ठ अत्रिसे पूछा- ‘महामुने ! इस पृथ्वीपर कौन-कौनसे पुण्यमय तीर्थ हैं, जहाँ जाकर मनुष्यको अपने बन्धुओंके वियोगका दुःख नहीं उठाना पड़ता ? और वहाँका श्राद्धादि कर्म पितरोंकी सद्गतिमें हेतु बनता है । भगवन् ! यदि कोई ऐसा स्थान हो तो कृपा करके वह मुझे बताइये।’
मुनिवर अत्रि बोले-वत्स राम ! आपने बड़ा उत्तम प्रश्न किया है, मेरे पिता ब्रह्माजीद्वारा निर्मित एक उत्तम तीर्थ है, जो पुष्करके नामसे विख्यात है, वहाँ जाकर आप अपने पितरों- दशरथ आदिको श्राद्धादि पिण्डदानसे तृप्त करें, वहाँ पिण्डदान करनेसे पितरोंकी मुक्ति हो जाती है।
यह सुनकर रामजी बड़े प्रसन्न हुए, उन्होंने पुष्कर जानेका मन बनाया। वे ऋक्षवान् पर्वत, विदिशा नगरी तथा चर्मण्वतीको पारकर यज्ञपर्वत गये। वहाँसे मध्यम पुष्कर गये। वहाँ स्नान करके उन्होंने देवताओं तथा पितरोंका तर्पण किया। उसी समय मुनिश्रेष्ठ मार्कण्डेयजी अपने शिष्योंके साथ वहाँ आये। भगवान्ने महामुनिको प्रणाम किया और कहा- मुने ! मैं महर्षि अत्रिकी आज्ञासे यहाँ अवियोगा तीर्थमें पितरोंका श्राद्ध करने उपस्थित हुआ हूँ।
मार्कण्डेयजीने कहा- रघुनन्दन ! आप बड़ा ही पुण्यकार्य करने जा रहे हैं। आप यहाँ राजा दशरथका श्राद्ध कीजिये । हम सभी विप्रगण श्राद्धमें उपस्थित रहेंगे। श्रीरघुनाथजीसे ऐसा कहकर वे सभी ऋषि स्नानके लिये चले गये। इधर श्रीरामजीने लक्ष्मणजीको श्राद्धकी सामग्री एकत्रित करनेके लिये कहा। श्रीलक्ष्मणजी जंगलसे अच्छे-अच्छे फलोंको ले आये। श्रीजानकीजीने भोजन बनाया। श्रीरामजी अवियोगा नामकी बावलीमें स्नानकर मुनियोंके आनेकी प्रतीक्षा करने लगे।
दुपहरीमें जब कुतप वेला (दिनमें११:३६ से १२:२४ तक का समय) आयी, उसी समय ऋषिगण उपस्थित हो गये। मुनियोंको आया देख सीतामाता वहाँसे हट गयीं और झाड़ियोंके पीछे हो गयीं। श्रीरामचन्द्रजी
विधिपूर्वक श्राद्धमें ब्राह्मणोंको भोजन कराने लगे। श्राद्धकी प्रक्रिया पूर्ण करके ब्राह्मणोंके विसर्जनके अनन्तर श्रीरामजीने देवी सीतासे पूछा- ‘प्रिये ! यहाँ आये मुनियोंको देखकर तुम छिप क्यों गयी ?’
सीताजी बोलीं- नाथ! मैंने जो आश्चर्य देखा, उसे बताती हूँ, सुनिये। आपके द्वारा नाम-गोत्रका उच्चारण होते ही स्वर्गीय महाराज यहाँ आकर उपस्थित हो गये। उनके साथ उन्हींके समान रूप-रेखावाले दो पुरुष और आये थे, जो सब प्रकारके आभूषण धारण किये हुए थे। वे तीनों ही ब्राह्मणोंके शरीरसे सटे हुए थे।
प्रभो ! ब्राह्मणोंके अंगोंमें मुझे पितरोंके दर्शन हुए। उन्हें देखकर मैं लज्जाके मारे आपके पास से हट गयी। इसीलिये आपने अकेले ही ब्राह्मणों को भोजन कराया और विधिपूर्वक श्राद्ध की क्रिया भी सम्पन्न की। भला ! मैं स्वर्गीय महाराज के सामने कैसे खड़ी होती ! यह मैंने आपसे सच्ची बात बतायी है।
यह सुनकर श्रीरामजी तथा लक्ष्मणजी को बड़ी प्रसन्नता हुई।